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शब्दों की दुनिया
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गंगा बचाओ, यमुना बचाओ … आदि अभियान चलते रहते हैं . नित नये आन्दोलन नदियों को बचाने के लिए होते रहते हैं . पर मुझे नही लगता कि कहीं कोई फर्क पड़ रहा है . गंगा , यमुना का चेहरा निखरता हुआ नही दीखता है. सारे आन्दोलन, सारे अभियान फुस्स हो जाते हैं . सारी आवाजें मौन हो जाती हैं . समझ में नही आता है कि कारण क्या हैं , कहाँ दिक्कत आती है , क्यूँ गंगा को अपने पवित्र होने की कीमत चुकानी पडती है ? जो लोग उसे अमृत सलिला कहते नही थकते , मोक्ष दायिनी कहने से गुरेज नही करते ,वे भी उसे बचाने में समर्थ नही हैं .सारी व्यवस्था पंगु हो जाती है . हाथी के दांत,घोड़े की चाल,आदमी के गुण जैसे उसके शत्रु हो जाते हैं , वैसे ही गंगा की पवित्रता , उसकी निर्मलता उस की दुश्मंन बन गयी है . उसके सब से बड़े दुश्मन उसके अपने चाहने वाले ही हैं .जो उसे चाहते ही नही हैं, वे गंदगी फ़ैलाने भी उसके यहाँ नही जाते . उसके चाहने वाले ही मरते मरते भी गंगा में बहा देने की वसीयत कर जाते हैं , शरीर न मिल पाए तो पांच बोरी राख़ गंगा के नाम कर जाते हैं . वाह रे,उनकी महानता की पराकाष्ठा ! कछुए ,मछली तो कल कारखानों के जहरी पानी की भेंट चढ़ गये ,जो उन महान शरीरों को सहन कर पाते. अब तो ये गंगा के किनारे पड़े हुए गंगा की महानता में ही चार चाँद लगाने का प्रयास करते है . जो शरीर से सेवा नही कर पाते , वे अपनी पांच बोरा राख़ मिश्रित अस्थियों को गंगा की लहरों में विसर्जित करने का महान वचन अपने रिश्तेदारों से ले लेते हैं . वाह रे चाहने वालो , ऐसी चाहत से भगवान बचाए . ………..
– प्रभु दयाल हंस

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